अशोक महान् का जीवन परिचय

Friday, 2 February 2018

स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय

                        स्वामी विवेकानन्द


स्वामी विवेकानन्द जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता (कोलकता) में हुआ। आपके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। सन्यास धारण करने से पहले आपका नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था व आप नरेन के नाम से भी जाने जाते थे।

आपका परिवार धनी, कुलीन और उदारता व विद्वता के लिए विख्यात था । विश्वनाथ दत्त कोलकाता उच्च न्यायालय में अटॅार्नी-एट-लॉ (Attorney-at-law) थे व कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत करते थे। वे एक विचारक, अति उदार, गरीबों के प्रति सहानुभूति रखने वाले, धार्मिक व सामाजिक विषयों में व्यवहारिक और रचनात्मक दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति थे । भुवनेश्वरी देवी सरल व अत्यंत धार्मिक महिला थीं ।

आपके पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से तीव्र थी और परमात्मा में व अध्यात्म में ध्यान था। इस हेतु आप पहले ‘ब्रह्म समाज' में गये किन्तु वहाँ आपके चित्त संतुष्ट न हुआ। इस बीच आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए उत्तीर्ण कर ली और कानून की परीक्षा की तैयारी करने लगे। इसी समय में आप अपने धार्मिक व अध्यात्मिक संशयों की निवारण हेतु अनेक लोगों से मिले लेकिन कहीं भी आपकी शंकाओं का समाधान न मिला। एक दिन आपके एक संबंधी आपको रामकृष्ण परमहंस के पास ले गये।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्रदत्त को देखते ही पूछा, "क्या तुम धर्म विषयक कुछ भजन गा सकते हो?"

नरेन्द्रदत्त ने कहा, "हाँ, गा सकता हूँ।"

फिर नरेन ने दो-तीन भजन अपने मधुर स्वरों में गाए। आपके भजन से स्वामी परमहंस अत्यंत प्रसन्न हुए। तभी से नरेन्द्रदत्त स्वामी परमहंस का सत्संग करने लगे और उनके शिष्य बन गए। अब आप वेदान्त मत के दृढ़ अनुयायी बन गए थे।

16 अगस्त 1886 को स्वामी परमहंस परलोक सिधार गये।

1887 से 1892 के बीच स्वामी विवेकानन्द अज्ञातवास में एकान्तवास में साधनारत रहने के बाद भारत-भ्रमण पर रहे।

आप वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे।

स्वामी विवेकानंद वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। आपने अमेरिका स्थित शिकागो में 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द के कारण ही पहुँचा। आपने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जो आज भी अपना काम कर रहा है। आप स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य व प्रतिभावान शिष्य थे। आपको अमरीका में दिए गए अपने भाषण की शुरुआत "मेरे अमेरिकी भाइयों एवं बहनों" के लिए जाना जाता है ।

पवहारी बाबा की कथाएं


स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषणों व लेखन में कई स्थानों पर पवहारी बाबा का उल्लेख किया है। 'पवहारी' यानी पवन का आहार करने वाला। पवहारी बाबा के बारे में प्रसिद्ध था कि वे कुछ आहार नहीं लेते थे। स्वामी विवेकानंद इस विचित्र साधु से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पवहारी बाबा की जीवनी भी लिखी।

'पवहारी बाबा एक गुफा में रहते थे। गुफा के भीतर दिनों-महीनों तक निरंतर साधना में डूबे रहते थे। इतने लंबे समय में वह क्या खाया करते थे कोई नहीं जानता था। इसलिए लोगों ने उनका नाम रख दिया था पवहारी बाबा। पवहारी शब्द का यहां अर्थ 'पवन का आहार' करने वाला अर्थात् जो केवल मात्र वायु पान करके ही जीवन का निर्वाह करते थे।' 

स्वामी विवेकानन्द का विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में दिया गया भाषण

स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...

मेरे अमरीकी भाइयो और बहनो!
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।




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 एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया। वे अपने उस गुरु भाई को सेवा का पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फैला सके। ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे।

विवेकानन्द बड़े स्‍वप्न‍दृष्‍टा थे। उन्‍होंने एक ऐसे समाज की कल्‍पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्‍य-मनुष्‍य में कोई भेद न रहे। उन्‍होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्‍यात्‍मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्‍द ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। विवेकानन्‍द को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवकों के लिये इस ओजस्‍वी सन्‍यासी का जीवन एक आदर्श है। उनके नाना जी का नाम श्री नंदलाल बसु था।


यात्राएँ


स्वामी विवेकानन्द शिकागो के विश्व धर्म परिषद् में बैठे हुए

२५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन्‌ १८९३ में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमरीका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। परन्तु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। उस परिषद् में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमरीका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन वर्ष वे अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया।अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा" यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को 'गरीबों का सेवक' कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।

विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व



उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।

तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवायी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।"

रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।"

वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गान्धीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा के स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-"‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।"


उन्नीसवी सदी के अन्तिम वर्षों में लिया गया क्रान्तिकारी वेशधारी विवेकानन्द का एक दुर्लभ चित्र। यह चित्र देखकर उन्होंने कहा था-"यह चित्र तो डाकुओं के किसी सरदार जैसा लगता है।"

उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षोँ में विवेकानन्द लगभग सशस्त्र या हिंसक क्रान्ति के जरिये भी देश को आजाद करना चाहते थे। परन्तु उन्हें जल्द ही यह विश्वास हो गया था कि परिस्थितियाँ उन इरादों के लिये अभी परिपक्व नहीं हैं। इसके बाद ही विवेकानन्द ने ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत और दुनिया को खंगाल डाला।

उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।

उनका यह कालजयी आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। विवेकानन्द के जीवन की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही है।

उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी बेसाख्ता जरूरत है।

यह स्वामी विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था। यह एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी। बीसवीं सदी के इतिहास ने बाद में उसी पर मुहर लगायी।

मृत्यु


वेलूर मठ स्थित स्वामी विवेकानन्द मन्दिर

विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेदकी व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टिकी गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।
उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।


स्वामी विवेकानन्द के अनमोल वचन


1.   "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।" अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत।


2..   मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है।


3..सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं-शुद्धता,धैर्य और दृढ़ता। लेकिन, इन सबसे बढ़कर जो आवश्यक है वह है प्रेम।हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो। मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं।खुद को समझाएं, दूसरों को समझाएं। सोई हुई आत्मा को आवाज दें और देखें कि यह कैसे जागृत होती है। सोई हुई आत्मा के का जागृत होने पर ताकत, उन्नति, अच्छाई, सब कुछ आ जाएगा।


4..मेरे आदर्श को सिर्फ इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता हैः मानव जाति देवत्व की सीख का इस्तेमाल अपने जीवन में हर कदम पर करे।शक्ति की वजह से ही हम जीवन में ज्यादा पाने की चेष्टा करते हैं। इसी की वजह से हम पाप कर बैठते हैं और दुख को आमंत्रित करते हैं। पाप और दुख का कारण कमजोरी होता है। कमजोरी से अज्ञानता आती है और अज्ञानता से दुख।


5. अगर आपको तैतीस करोड़ देवी-देवताओं पर भरोसा है लेकिन खुद पर नहीं तो आप को मुक्ति नहीं मिल सकती। खुद पर भरोसा रखें, अडिग रहें और मजबूत बनें। हमें इसकी ही जरूरत है।





* स्वामीजी के उपदेशों का सूत्रवाक्य, "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत" कठोपनिषद् के   एक मंत्र से प्रेरित है:





लाल बहादुर शास्त्री का जीवन परिचय

लाल बहादुर शास्त्री का जीवन परिचय 


भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश के एक सामान्य निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। आपका वास्तविक नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। शास्त्री जी के पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक शिक्षक थे व बाद में उन्होंने भारत सरकार के राजस्व विभाग में क्लर्क के पद पर कार्य किया।

लाल बहादुर की शिक्षा हरीशचंद्र उच्च विद्यालय और काशी विद्या पीठ में हुई। आपने स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की तत्पश्चात् आपको 'शास्त्री' की उपाधि से सम्मानित किया गया।

आप भारत सेवक संघ से जुड़े रहे।  यहीं से आपका राजनैतिक जीवनआरम्भ हुआ।

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया। गोविंद बल्लभ पंत के मंत्रीमंडल में आपको पुलिस एवं यातायात मंत्रालय सौंपा गया। परिवहन मंत्री के अपने कार्यकाल में आपने महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति की।

पुलिस मंत्री होने पर आपने भीड़ को नियंत्रित रखने के लिये लाठी की अपेक्षा पानी की बौछार का प्रयोग लागू करवाया।

1951 में, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में आप अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किए गए।  1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से विजय का श्रेय आपके अथक परिश्रम व प्रयास का परिणाम था।

आपकी प्रतिभा और निष्ठा को देखते हुए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात कांग्रेस पार्टी ने 1964 में लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री पद का उत्तरदायित्व सौंपा। आपने 9 जून 1964 को भारत के प्रधान मन्त्री का पद भार ग्रहण किया।

प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 26 जनवरी, 1965 को देश के जवानों और किसानों को अपने कर्म और निष्ठा के प्रति सुदृढ़ रहने और देश को खाद्य के क्षेत्र में आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से ‘जय जवान, जय किसान' का नारा दिया।  यह नारा आज भी भारतवर्ष में लोकप्रिय है।

उजबेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के पश्चात 11 जनवरी, 1966 की रात को रहस्यमय परिस्थितियों में आपकी मृत्यु हो गई।

आपकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त आपको 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।
स्वतन्त्रता की लड़ाई में शास्त्री जी ने ‘मरो नहीं मारो’ का नारा दिया, जिसने पुरे देश में स्वतन्त्रता की ज्वाला को तीव्र कर दिया. 1920 में शास्त्रीजी आजादी की लड़ाई में कूद पड़े और ‘भारत सेवक संघ’ की सेवा में जुड़ गये. यह एक ‘गाँधी-वादी’ नेता थे जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन देश और गरीबो की सेवा में लगा दिया . शास्त्री जी सभी आंदोलनों एवम कार्यक्रमो में हिस्सा लिया करते थे, जिसके फलस्वरूप कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा . इन्होने सक्रिय रूप से 1921 में ‘अहसयोग-आन्दोलन’, 1930 में ‘दांडी-यात्रा’, एवम 1942 में “भारत-छोडो” में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई.

द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान भारत में आजादी की लड़ाई को भी तीव्र कर दिया गया. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ‘आजाद हिन्द फ़ौज’ का गठन कर उसे “दिल्ली-चलो” का नारा दिया और इसी वक्त 8 अगस्त 1942 में गाँधी जी के ‘भारत-छोडो आन्दोलन’ ने तीव्रता पकड़ ली थी. इसी दौरान शास्त्री जी ने भारतीयो को जगाने के लिए “करो या मरो” का नारा दिया, परन्तु 9 अगस्त 1942 को शास्त्री जी ने इलाहबाद में इस नारे में परिवर्तन कर इसे “मरो नहीं मारो” कर देश वासियों का आव्हान किया . इस आन्दोलन के समय शास्त्री जी ग्यारह दिन भूमिगत रहे, फिर 19 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिए गये .

लाल बहादुर शास्त्री स्वतंत्र भारत के नेता (Lal bahadur shastri political career) –

स्वतंत्र भारत में यह उत्तर प्रदेश की संसद के सचिव नियुक्त किये गये . गोविन्द वल्लभ पन्त के मंत्रीमंडल की छाया में इन्हें पुलिस एवम परिवहन का कार्यभार दिया गया. इस दौरान शास्त्री जी ने पहली महिला को कंडक्टर नियुक्त किया एवम पुलिस विभाग में उन्होंने लाठी के बजाय पानी की बौछार से भीड़ को नियंत्रित करने का नियम बनाया. 1951 में शास्त्री जी को ‘अखिल-भारतीय-राष्ट्रिय-काँग्रेस’ का महा-सचिव बनाया गया. लाल बहादुर शास्त्री हमेशा पार्टी  के प्रति समर्पित रहते थे. उन्होंने 1952, 1957, 1962 के चुनाव में पार्टी के लिए बहुत काम कर प्रचार-प्रसार किया, एवम काँग्रेस को भारी बहुमत से विजयी बनाया .

शास्त्री जी की काबिलियत को देखते हुए इन्हें जवाहरलाल नेहरु की आकस्मिक मौत के बाद प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया, परन्तु इनका कार्यकाल बहुत कठिन था. पूंजीपति देश एवम  शत्रु-देश ने इनका शासन बहुत ही चुनोतिपूर्ण बना दिया था. अचानक ही 1965 में सांय 7.30 बजे पकिस्तान ने भारत पर हवाई हमला कर दिया. इस परिस्थिती में राष्ट्रपति ‘सर्वपल्ली राधा कृष्णन’ ने बैठक बुलवाई. इस बैठक में तीनो रक्षा विभाग के प्रमुख एवम शास्त्री जी सम्मिलित हुए. विचार-विमर्श के दौरान प्रमुखों ने लाल बहादुर शास्त्रों को सारी स्थिती से अवगत कराया और आदेश की प्रतीक्षा की, तब ही शास्त्री जी ने जवाब में कहा “आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइए की हमें क्या करना है?”  इस तरह भारत-पाक युद्ध के दौरान विकट  परिस्थितियों में शास्त्री जी ने सराहनीय नेतृत्व किया और “जय-जवानजय-किसान” का नारा दिया, जिससे देश में एकता आई और भारत ने पाक को हरा दिया, जिसकी कल्पना पकिस्तान ने नहीं की थी,  क्योंकि तीन वर्ष पहले चीन ने भारत को हराया था.

लाल बहादुर शास्त्री मृत्यु (Lal bahadur shastri death) –

रूस  एवम अमेरिका के दबाव पर शास्त्री जी शान्ति-समझौते पर हस्ताक्षर करने हेतु  पकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से रूस की राजधानी ताशकंद में मिले. कहा जाता है, उन पर दबाव बनाकर हस्ताक्षर करवाए गए. समझोते की रात को ही 11 जनवरी 1966 को उनकी रहस्यपूर्ण तरीके से मृत्यु हो गई. उस वक्त के अनुसार, शास्त्री जी को दिल का दौरा पड़ा था, पर कहते है कि इनका पोस्टमार्टम नहीं किया गया था क्यूंकि उन्हें जहर दिया गया था, जो कि सोची समझी साजिश थी, जो आज भी ताशकंद की आबो-हवा में दबा एक राज़ है.  इस तरह 18 महीने ही लाल बहादुर शास्त्री ने भारत की कमान  सम्भाली. इनकी मृत्यु के बाद पुनः गुलजारी लाल नन्दा को कार्यकालीन प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया. इनकी अन्त्येष्टी यमुना नदी के किनारे की गई एवम उस स्थान को ‘विजय-घाट’ का नाम दिया गया .
उनकी साफ सुथरी छवि के कारण ही उन्हें 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धान्तिक न होकर पूर्णत: व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थे।

निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे। 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर सायं 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया। परम्परानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला ली जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मन्त्रिमण्डल के सदस्य शामिल थे। संयोग से प्रधानमन्त्री उस बैठक में कुछ देर से पहुँचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। तीनों प्रमुखों ने उनसे सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा: "सर! क्या हुक्म है?" शास्त्रीजी ने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया: "आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइये कि हमें क्या करना है?"

शास्त्रीजी ने इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और जय जवान-जय किसान का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी।

[[चित्|thumb|ब्रिगेडियर हरी सिंह, जो उस समय प्रथम भारतीय बख्तरबंद डिविजन की १८वीं यूनिट में सैनिक थे, लाहौर (पाकिस्तान) में बरकी पुलिस थाने के बाहर तैनात]] भारत पाक युद्ध के दौरान ६ सितम्बर को भारत की १५वी पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्तृत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे पर पाकिस्तान के बहुत बड़े हमले का डटकर मुकाबला किया। इच्छोगिल नहर भारत और पाकिस्तान की वास्तविक सीमा थी। इस हमले में खुद मेजर जनरल प्रसाद के काफिले पर भी भीषण हमला हुआ और उन्हें अपना वाहन छोड़ कर पीछे हटना पड़ा। भारतीय थलसेना ने दूनी शक्ति से प्रत्याक्रमण करके बरकी गाँव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित की। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुँच गयी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की।

आखिरकार रूस और अमरिका की मिलीभगत से शास्त्रीजी पर जोर डाला गया। उन्हें एक सोची समझी साजिश के तहत रूस बुलवाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हमेशा उनके साथ जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला फुसलाकर इस बात के लिये मनाया गया कि वे शास्त्रीजी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें और वे भी मान गयीं। अपनी इस भूल का श्रीमती ललिता शास्त्री को मृत्युपर्यन्त पछतावा रहा। जब समझौता वार्ता चली तो शास्त्रीजी की एक ही जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्तें मंजूर हैं परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज़ मंजूर नहीं। काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्रीजी पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करा लिये गये। उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किये थे कि वे हस्ताक्षर जरूर कर रहे हैं पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधान मन्त्री ही लौटायेगा, वे नहीं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रहस्य[2] बना हुआ है कि क्या वाकई शास्त्रीजी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? कई लोग उनकी मौत की वजह जहर[3] को ही मानते हैं।

शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया!

ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उसी रात उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ शान्तिवन (नेहरू जी की समाधि) के आगे यमुना किनारे की गयी और उस स्थल को विजय घाट नाम दिया गया। जब तक कांग्रेस संसदीय दल ने इन्दिरा गान्धी को शास्त्री का विधिवत उत्तराधिकारी नहीं चुन लिया, गुलजारी लाल नन्दाकार्यवाहक प्रधानमन्त्री रहे।
शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मत है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई।पहली इन्क्वायरी राज नारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी ऐसा बताया गया। मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है।यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी।

शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली।2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र ( CIA's Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।"।
सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसूमें शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय (सन् उन्निस सौ अठहत्तर में) ललिताजी जीवित थीं।
यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गये थे, इस घटना चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है। गत वर्ष जुलाई 2012 में शास्त्रीजी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी।


Wednesday, 10 January 2018

सम्राट अशोक का गौरवपूर्ण इतिहास Samrat Ashoka Life History in Hindi

सम्राट अशोक का गौरवपूर्ण इतिहास 

Samrat Ashoka Life History in Hindi



सम्राट अशोक के बारे में कुछ रोचक तथ्य / Interesting Facts about Samrat Ashoka in Hindi


Tuesday, 9 January 2018

चंद्रगुप्त मौर्या जीवन परिचय

Chandragupta Maurya History in Hindi 


Chandragupta Maurya चन्द्रगुप्त मौर्य , मौर्य साम्राज्य के संस्थापक और अखंड भारत निर्माण करने वाले प्रथम सम्राट थे | उन्होंने 324 ई. पूर्व तक राज किया और बाद में बिन्दुसार ने मौर्य साम्राज्य की कमान संभाली थी | चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के इतिहास में एक निर्णायक सम्राट था | उसने नन्द वंश के बढ़ते अत्याचारों को देखते हुए चाणक्य के साथ मिलकर नन्द वंश का नाश किया | उसने यूनानी साम्राज्य के सिकन्दर महान के पूर्वी क्षत्रपों को हराया और बाद में सिकन्दर के उत्तराधिकारी सेल्यूकस को हराया | यूनानी राजनयिक मेगास्थिनिज ने मौर्य इतिहास की काफी जानकारी दी| आइये अब आपको Chandragupta Maurya चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन के बारे में विस्तार से बताते है

चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन Early Life of Chandragupta Maurya


326 इसा पूर्व में जब सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया था तब चन्द्रगुप्त किशोरावस्था में थे | सिकंदर ने Khyber Pass को पार कर राजा पुरु को हरा दिया था जबकि उसकी सेना बहुत बड़ी थी | उस समय राजा पुरु की सेना में 30 हाथी थे जिन्होंने सिकन्दर के घोड़ो और घुड़सवारो को रौंद दिया था | अब विजेता सिकन्दर का अगला निशाना नन्द साम्राज्य था जिसके पास 6000 हाथी और विशाल सेना थी |सिकन्दर जान गया था कि वो इस सेना को नही जीत पायेंगे इसलिए सिकन्दर की सेना गंगा के मैदानों से ही वापस लौट गयी | विश्व विजेता सिकन्दर ने नन्द साम्राज्य के आगे घुटने टेक दिए | इस घटना के पांच साल बाद सिकन्दर के भारत की जीत के स्वप्न को चन्द्रगुप्त मौर्य ने पूरा किया |



Chandragupta Maurya चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 340 इसा पूर्व बिहार राज्य के पटना जिले में माना जाता है | उसके जन्म के वास्तविक समय के बारे में अभी भी विवाद है | उदाहरण स्वरुप कुछ ग्रन्थ बताते है कि चन्द्रगुप्त के पिता एक क्षत्रिय थे और एक दुसरे ग्रन्थ में ये बताया गया है कि चन्द्रगुप्त के पिता तो राजा थे लेकिन माँ शुद्र जाति की एक दासी थी | Chandragupta Maurya चन्द्रगुप्त के बचपन के बारे में इतिहास में अधिक जानकारी नही है केवल नन्द साम्रज्य से जुडी उनकी कुछ कहानिया इतिहास में है कि किस प्रकार उन्होंने नन्द साम्राज्य का पतन कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी |

नंद साम्राज्य का विनाश और मौर्य साम्राज्य की स्थापना Conquest of Nanda Empire and Foundation of Maurya Dynasty


नन्द साम्राज्य के पतन से पूर्व नन्द साम्राज्य का आपको इतिहास बताना चाहते है क्योंकि ये वही वंश था जिसने विश्व विजेता सिंकन्दर को भारत में आने से रोका था | नन्द साम्राज्य में मगध पर राज करने वाले नौ भाई थे लेकिन उन सबमे महापदम् नंदा सबसे प्रसिद्ध था जिसे उग्रसेन नंदा भी कहते थे | उसका छोटा भाई धन नंदा था जो इस वंश का अंतिम शाषक था | धन नंदा के पास एक विशाल सेना थी जिसमे 200,000 पैदल सेना , 20,000 घुड़सवार सेना , 2,000 रथ  and 3,000 युद्ध हाथी थे |धन नंदा के शाषन के समय 326 ई. पूर्व में सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण कर दिया और नंदा की मजबूत सेना ने उसे परास्त कर उसके अभियान को गंगा के मैदानों और सिंध तक सिमित कर दिया |

धन नंदा एक निरंकुश शासक था जिसने प्रतिदिन की वस्तुओ पर भी कर लगा दिया था जिसकी वजह से उसके खिलाफ असंतोष पनपने लगा | उस समय भारत विघटित होना शुर हो गया था और नंदा इस मामले में बहुत लापरवाह था इसलिए जनता के आक्रोश छा गया था | उस समय चाणक्य तक्षशिला का प्रख्यात शिक्षक था  और भारत पर विदेशी आक्रमणों के सिलसिले में बात करने मगध के दरबार में गया | नंदा ने ना केवल उसके प्रस्ताव को अस्वीकृत किया बल्कि उसका अपमान भी किया |




चाणक्य ने अपनी शिखा खोलकर उसी समय बदला लेने की शपथ खाई |उसने चन्द्रगुप्त मौर्य को नंदा के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तैयार किया |चन्द्रगुप्त को नन्द साम्राज्य से उस समय देश निकाला मिला था तो चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को नन्द साम्राज्य के स्थान पर उसे सिंहासन पर बिठाने का आश्वासन देकर अपने साथ किया | चाणक्य को नन्द वंश के राजा ने जो अपमानित किया था उसका प्रतिशोध वो नन्द वंश को समाप्त कर लेना चाहता था तो चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को हिन्दू सूत्रों के अनुसार कई तकनीके सिखाई और सेना बढाई |

Chandragupta Maurya चन्द्र गुप्त ने अपनी सेना को नेपाल के पहाड़ो में छिपा दिया और जहा पर सिकन्दर ने पुरु को तो हरा दिया लेकिन नन्द साम्राज्य को नही हरा पाया | शुरवात में तो उसकी सेना थोड़ी कमजोर रही लेकिन युद्दो के सिलसिले ने नन्द साम्राज्य की राजधानी पाटलीपुत्र पर कब्ज़ा कर लिया | 321 इसा पूर्व में 20 वर्ष के Chandragupta Maurya चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने खुद के साम्राज्य मौर्य साम्राज्य की स्थापना की. 

चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तार Expansion of Maurya Dynasty



Chandragupta Maurya चन्द्रगुप्त मौर्य का नया साम्राज्य प्रारम्भ से ही वर्तमान अफगानिस्तान से पश्चिम में बर्मा और जम्मू कश्मीर से दक्षिण के हैदराबाद तक फ़ैल गया था | चाणक्य उनके दरबार में प्रधानमंत्री और मुख्य सलाहकार के रूप में कार्य करते थे | 323 इसवी में जब सिकन्दर की मौत हो गयी तब उसका साम्राज्य छोटे छोटे तानाशाहों में विभाजित हो गया और उसमे से हर गणराज्य पर अलग शाशक था | 316 इसा पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य ने मध्य एशिया के सभी गणराज्यो को हराकर अपने साम्राज्य में मिला लिया  और अपने साम्राज्य को वर्तमान इरान , ताजकिस्तान और क्राजिस्तान तक फैला दिया |कुछ तथ्य बताते है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने दो Macedonian तानाशाहों की हत्या करवाई थी |

305 इसा पूर्व में Chandragupta Maurya चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य को पूर्वी फारस तक फैला दिया | उस समय फारस पर Seleucid Empire के संस्थापक Seleucus I Nicator का राज था जो कि सिकन्दर के राज में उनका साधारण सेनापति था | चन्द्रगुप्त ने पूर्वी एशिया के बड़े हिस्से को जब्त कर लिया और शांति वार्ता में युद्ध का अंत हो गया | चन्द्रगुप्त का उस जमीन पर कब्जा हो गया और साथ ही सेल्यूकस ने अपनी बेटी का विवाह चन्द्रगुप्त से करवा दिया | इसके बदले में सेल्यूकस को 500 हाथी तोहफे में मिले जिसका उपयोग उसने 301 इसवी में Ipsus की लड़ाई जीतने में किया|

इतने सारे गणराज्यो के साथ उसने उत्तरी और पश्चिमी भारत पर राज किया | चन्द्रगुप्त का अगला निशाना दक्षिण भारत था | 4 लाख सैनिको के साथ उसने भारत उपमहाद्वीप के कलिंग साम्राज्य और तमिल साम्राज्य को छोडकर पुरे भारत पर राज किया | उसके शाशन के अंत तक चन्द्र्गुप्र ने लगभग सभी राज्यों को एक कर दिया था | उसके बाद उसके पोते अशोक ने कलिंग और तमिल को भी अपने मौर्य साम्राज्य में मिला दिया था |

चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्म अपनाना और चन्द्रगुप्त की मृत्यु Jainism and Death of Chandragupta Maurya



50 वर्ष की उम्र में Chandragupta Maurya चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्म से काफी प्रेरित होकर जैन धर्म का अनुयायी बन गया और जैन संत भद्रबाहु को अपना गुरु बना लिया | 298 BCE में अपना साम्राज्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप दिया | चन्द्रगुप्त मौर्य उसके बाद कर्नाटक की Shravanabelogola गुफाओ में चला गया और 5 सप्ताह तक बिना खाए पिए तप किया और अंत में संथारा [ भूख से मर जाना ] से मौत को प्राप्त हो गया |

चन्द्रगुप्त के जीवन पर आधारित फिल्मे और टीवी सीरियल Movies and TV Serial Based on Life of Chandragupta Maurya


Chandragupta Maurya के जीवन पर 1977 में तेलुगु भाषा में “चाणक्य चन्द्रगुप्त ” नाम से फिल्म बनी  | इसके बाद रूद्र राक्षश नाटक से प्रेरित चाणक्य के सम्पूर्ण जीवन पर दूरदर्शन पर टीवी सीरियल प्रसारित किया गया | इसके बाद Imagine TV पर 2011 में “Chandragupt Maurya “टीवी सीरीज प्रसारित किया गया | भारतीय डाक सेवा ने 2001 में चन्द्रगुप्त मौर्य के नाम पर डाक टिकिट जारी किया था |

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